आर्यभट

आर्यभट

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।[1] इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।

आर्यभट

पुणे में आर्यभट्ट की मूर्ति ४७६-५५०
जन्म४७६
कुसुमपुर (पाटलिपुत्र)पटना,भारत
देहांत५५०(उम्र ७३-७४)
युगगुप्त काल
मुख्य रुचियाँगणित,खगोल शास्त्र,
उल्लेखनीय विचार"π" का अन्वेषणसूर्य और चंद्रग्रहण का विस्तार ,चन्द्रमा पर प्रकाश का प्रतिबिब
मुख्य कृतियाँआर्यभटीय,आर्यभट्ट सिद्धांत

एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। इनकी उत्पत्ति भट्ट ब्रह्मभटट ब्राह्मण समुदाय में मानी जाती है.

आर्यभट का जन्म-स्थान

यद्यपि आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्मक के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है, हालाँकि आरंभिक बौद्ध ग्रन्थ अश्माका को दक्षिण में, दक्षिणापथ या दक्खन के रूप में वर्णित करते हैं, जबकि अन्य ग्रन्थ वर्णित करते हैं कि अश्माका के लोग अलेक्जेंडर से लड़े होंगे, इस हिसाब से अश्माका को उत्तर की तरफ और आगे होना चाहिए। [2]

एक ताजा अध्ययन के अनुसार आर्यभट, केरल के चाम्रवत्तम (१०उत्तर५१, ७५पूर्व४५) के निवासी थे। अध्ययन के अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था जो कि श्रवणबेलगोल के चारों तरफ फैला हुआ था और यहाँ के पत्थर के खम्बों के कारण इसका नाम अस्मका पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन बस्ती का हिस्सा था, इसका प्रमाण है भारतापुझा नदी जिसका नाम जैनों के पौराणिक राजा भारता के नाम पर रखा गया है। आर्यभट ने भी युगों को परिभाषित करते वक्त राजा भारता का जिक्र किया है- दसगीतिका के पांचवें छंद में राजा भारत के समय तक बीत चुके काल का वर्णन आता है। उन दिनों में कुसुमपुरा में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहाँ जैनों का निर्णायक प्रभाव था और आर्यभट का काम इस प्रकार कुसुमपुरा पहुँच सका और उसे पसंद भी किया गया।[3]

हालाँकि ये बात काफी हद तक निश्चित है कि वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा उच्च शिक्षा के लिए गए थे और कुछ समय के लिए वहां रहे भी थे।[4] भास्कर I (६२९ ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। यह वह समय था जिसे भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, विष्णुगुप्त के पूर्व बुद्धगुप्त और कुछ छोटे राजाओं के साम्राज्य के दौरान उत्तर पूर्व में हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था।

आर्यभट अपनी खगोलीय प्रणालियों के लिए सन्दर्भ के रूप में श्रीलंका का उपयोग करते थे और आर्यभटीय में अनेक अवसरों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है।[तथ्य वांछित]

कृतियाँ

आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- आर्यभट सिद्धांत। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।[5]

उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूलघनमूलसमान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[6] आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं।

उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।

आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I. ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार.[2]

एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।[2]

आर्यभटीय

मुख्य लेख आर्यभटीय

आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नहीं दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है :

  • (1) गीतिकपाद : (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्पमन्वन्तरयुग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।
  • (२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु -छाया), सरल, द्विघातयुगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।
  • (३) कालक्रियापाद (२५ छंद) : समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।
  • (४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्तआकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं।

इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ते हैं।

आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा।

आर्यभट का योगदान

भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'स्वर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।

उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है[ख]

आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी,यह उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।

आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।

गणित

स्थानीय मान प्रणाली और शून्य

स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी।[7] उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।[8]

हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना। [9]

अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π

आर्यभट ने पाई ({\displaystyle \pi }) के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं:

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६

इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।[10]

आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था।[11]

आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.८२० ई.) बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था।[2]

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति

गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-

त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः

इसका अनुवाद यह है : किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है।[12]

आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री"। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है "खोह" या "खाई" (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ "खोह" या खाई" ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।[13]

अनिश्चित समीकरण

प्राचीन काल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं:

वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है।

अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। kuṭṭaka कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है।[14] डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया।

बीजगणित

आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किये हैं।[15]

12+22++2=(+1)(2+1)6{\displaystyle 1^{2}+2^{2}+\cdots +n^{2}={n(n+1)(2n+1) \over 6}}

और

13+23++3=(1+2++)2{\displaystyle 1^{3}+2^{3}+\cdots +n^{3}=(1+2+\cdots +n)^{2}}

खगोल विज्ञान

आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं।

सौर प्रणाली की गतियाँ

प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है।

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।

अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है:

उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)
"उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं।

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।

आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की। इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र। [16] पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है : चंद्रमाबुधशुक्रसूरजमंगलबृहस्पतिशनि और नक्षत्र[2]

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है।[17] आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है।[18]

ग्रहण

उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।[2]

आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञएराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।[19]

नक्षत्रों के आवर्तकाल

समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।

सूर्य केंद्रीयता

आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं।[20][21] एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है "यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,".[22] हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था।[23] यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।[24] हालाँकि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिड्स(चौथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र(पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्ज़न्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है।

विरासत

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।

साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा, और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया।

वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).[25]

आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी। और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही।

आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया,[26] जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है। यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी।

भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया।चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है।

अंतर्विद्यालयीय आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है।[27] बैसिलस आर्यभटइसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है।[28]

टिप्प्णियाँ

   क.    ^ चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
             अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)

   ख.    ^ अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
             अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)

(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।)

इन्हें भी देखें


आर्यभट्ट कौन थे, जानिए संपूर्ण परिचय

भारत में खगोलशास्त्र के सूत्र हमें ऋग्वेद में देखने को मिलते हैं। वैदिककाल में भी कई खगोलशास्त्री हुए हैं जिनके ज्ञान को ही बाद के वैज्ञानिकों ने आगे बढ़ाया। आर्यभट्ट के अलावा, भास्कराचार्य (जन्म- 1114 ई., मृत्यु- 1179 ई.), बौद्धयन (800 ईसापूर्व), ब्रह्मगुप्त (ईस्वी सन् 598 में जन्म और 668 में मृत्यु) और भास्कराचार्य प्रथम (600–680 ईस्वीं) भी महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। आर्यभट्ट के नाम पर ही अंतरिक्ष में छोड़े गए एक भारतीय उपग्रह का नाम भी है। महान गणितज्ञ और खगोलविद आर्यभट्ट के बारे में जानिए सबकुछ।
 
 
।।उदयो यो लंकायां सोस्तमय: सवितुरेव सिद्धपुरे।
मध्याह्नो यवकोट्यां रोमकविषयेऽर्धरात्र: स्यात्‌॥ -आर्यभट्टीय गोलपाद-13

अर्थात जब लंका में सूर्योदय होता है, तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
 
आर्यभट्ट का जन्म ईस्वी सन् 476 में कुसुमपुर (पटना) में हुआ था। यह सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय के समय हुआ थे। इनके शिष्य प्रसिद्ध खगोलविद वराह मिहिर थे। आर्यभट्ट ने नालंदा विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर मात्र 23 वर्ष की आयु में 'आर्यभट्टीय' नामक एक ग्रंथ लिखा था। उनके इस ग्रंथ की प्रसिद्ध और स्वीकृति के चलते राजा बुद्धगुप्त ने उनको नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया था। आर्यभट्ट के बाद लगभग 875 ईस्वी में आर्यभट द्वितीय हुए जिन्होंने ज्योतिष पर 'महासिद्धांत' नामक ग्रंथ लिखा था। आर्यभट्ट द्वितीय गणित और ज्योतिष दोनों विषयों के आचार्य थे। इन्हें 'लघु आर्यभट्ट' भी कहा जाता था।
 
सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने ही सैद्धांतिक रूप से यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24,835 मील है और यह अपनी धुरी पर घूमती है जिसके कारण रात और दिन होते हैं। इसी तरह अन्य ग्रह भी अपनी धुरी पर घूमते हैं जिनके कारण सूर्य और चंद्रग्रहण होते हैं।

आर्यभट्ट के 'बॉलिस सिद्धांत' (सूर्य चंद्रमा ग्रहण के सिद्धांत), 'रोमक सिद्धांत' और 'सूर्य सिद्धांत' विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। आर्यभट्ट द्वारा निश्चित किया 'वर्षमान' 'टॉलमी' की तुलना में अधिक वैज्ञानिक है। आर्यभट्ट के प्रयासों द्वारा ही खगोल विज्ञान को गणित से अलग किया जा सका।
 
बीजगणित में भी सबसे पुराना ग्रंथ आर्यभट्ट का है। आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली का विकास किया। उन्होंने सबसे पहले 'पाई' (p) की कीमत निश्चित की और उन्होंने ही सबसे पहले 'साइन' (SINE) के 'कोष्टक' दिए। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। 

 
बीजगणित में उन्होंने कई संशोधन, संवर्धन किए और गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' प्रचलित किया।वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने 'आर्यभट्ट सिद्धांत' नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में रेखागणित, वर्गमूल, घनमूल जैसी गणित की कई बातों के अलावा खगोल शास्त्र की गणनाएं और अंतरिक्ष से संबंधित बातों का भी समावेश है। आज भी 'हिन्दू पंचांग' तैयार करने में इस ग्रंथ की मदद ली जाती है।
 
आर्यभट्ट के सिद्धांत पर 'भास्कर प्रथम' ने टीका लिखी। भास्कर के 3 अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं- 'महाभास्कर्य', 'लघुभास्कर्य' एवं 'भाष्य'। खगोल और गणितशास्त्र- इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था।

 
आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
 
बुध : आर्यभट्ट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू
शुक्र : आर्यभट्ट का मान 0.725 एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू
मंगल : आर्यभट्ट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू
गुरु : आर्यभट्ट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू
शनि : आर्यभट्ट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू

महान गणितज्ञ आर्यभट की जीवनी | Aryabhatta Biography In Hindi

Aryabhatta ka Jeevan Parichay

आर्यभट्ट भारत के एक महान गणतिज्ञ थे, जिन्होंने शून्य और पाई की खोज की थी। वे एक अच्छे खगोलशास्त्री भी थे, जिन्होंने विज्ञान और गणित के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, उनकी प्रसिद्धि न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी फैली थी। आर्यभट्ट के द्धारा की गई खोजों ने विज्ञान और गणित के क्षेत्र में एक नया आयाम प्रदान किया है और इसे आसान बना दिया है।

आपको बता दें कि बीजगणित (एलजेबरा) का इस्तेमाल करने वाले आर्यभट्ट पहले शख्सियत थे। ऐसा माना जाता है कि ‘निकोलस कॉपरनिकस’ से करीब 1 हजार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह अविष्कार कर लिया था कि पृथ्वी गोल है और वह सूर्य के चारो ओर चक्कर लगाती है।

यही नहीं आर्यभट्ट जी ने अपने नाम पर आर्यभट्टीय ग्रंथ की रचना की थी। उनके इस ग्रंथ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमति गणित को समझाने की कोशिश की गई है साथ ही खगोल को समाहित को भी किया गया है। आइए जानते है भारत के महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट जी की अविष्कार और उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण खोजों के बारे में –

महान गणितज्ञ आर्यभट की जीवनी – Aryabhatta Biography In Hind

आर्यभट्ट जी के जीवन के बारे में एक नजर में- Aryabhatta Information

नाम (Name)आर्यभट्ट
जन्म (Birthday) 476 ईसवी अश्मक, महाराष्ट्र, भारत
मृत्यु (Death)550 ईसवी
कार्य (Work)गणितज्ञ, ज्योतिषविद एवं खगोलशास्त्री
पढ़ाई (Education)नालंदा विश्वविद्यालय
प्रसिद्ध रचनायेंआर्यभटीय, आर्यभट्ट सिद्धांत
महत्वपूर्ण योगदानपाई एवं शून्य की खोज

आर्यभट्ट जी का जन्म और शुरुआती जीवन – Aryabhatta History

महान गणितज्ञ आर्यभट्ट जी की प्रसिद्द रचनाएं – Aryabhatta Books

आर्यभट्ट ने अपनी जीवनकाल में कई महान ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से उनके आर्य़भट्टीय, तंत्र, दशगीतिका और आर्यभट्ट सिद्धांत प्रमुख थे। हालांकि, उनकी आर्यभट्ट सिंद्धात नामक ग्रंथ एक विलुप्त ग्रंथ है। जिसके सिर्फ 34 श्लोक ही वर्तमान में उपलब्ध है।

इतिहासकारों की माने तो आर्यभट्ट के इस ग्रंथ का सबसे अधिक इस्तेमाल सातवीं सदी में किया जाता था। यह उनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ था, जिसमें उन्होंने अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमति की व्याख्या बेहद खूबसूरत तरीके से की थी। इसके अलावा इस ग्रंथ में वर्गमूल, घनमूल, सामान्तर श्रेणी समेत कई समीकरणों को भी आसान भाषा में समझाया गया है।

उनके इस ग्रंथ में कुल 121 श्लोक हैं, जिन्हें अलग-अलग विषयों के आधार पर गीतिकापद, गणितपद, कालक्रियापद एवं गोलपद में बांटा गया है। आर्यभट्ट के इस ग्रंथ में 108 छंद है, उनके इस ग्रंथ को ”आर्यभट्टीय” नाम से संबोधित करते हैं।

महान खगोल वैज्ञानिक आर्यभट्ट का ”आर्यभट्ट सिद्धान्त” – Aryabhatta Theorem

महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट की यह प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। इसमें उन्होंने शंकु यंत्र, बेलनाकार यस्ती यंत्र, जल घड़ी, छाया यंत्र, कोण मापी उपकरण, छत्र यंत्र और धनुर यंत्र/चक्र यंत्र आदि का उल्लेख किया है।

आर्यभट्ट जी गणित और विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान – Aryabhatta Contribution

महान वैज्ञानिक और गणतिज्ञ आर्यभट्ट जी ने अपने महान खोजों और सिद्धान्तों से विज्ञान और गणित के क्षेत्र में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। उन्होंने शून्य, पाई, पृथ्वी की परिधि आदि की लंबाई बताकर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी कुछ महत्वपूर्ण खोज इस प्रकार हैं-

  • पाई का मान- आर्यभट्ट जी ने दशमलव के चार अंकों तक पाई का मान बताया है। उन्होंने पाई का मान 62832/20000 = 3.1416 के बराबर बताया।
  • त्रिकोणमिति में आर्यभट्ट जी का योगदान- आर्यभट्ट जी का त्रिकोणमिति के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने अपने इस ग्रंथ में आर्य सिद्धांत में ज्या, कोज्या, उत्क्रम ज्या, व्युज्या की परिभाषा बताई।
  • शून्य की खोज- आर्यभट्ट ने शून्य की खोज कर गणित में अपना अतिमहत्वपूर्ण योगदान दिया है।
  • बीजगणित में घनों और वर्गों के जोड़ के सूत्र का अविष्कार किया।
  • खगोल विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट जी ने अपना अहम योगदान दिया है, उन्होंने यह सिद्द किया है कि पृथ्वी अपने अक्ष पर निरंतर रुप से घूमती है, जिसकी वजह से आसमान में तारों की स्थिति में बदलाव होता है । इसके साथ ही आर्यभट्ट जी ने यह भी बताया है कि पृथ्वी को अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करने में करीब 23 घंटे, 56 मिनट और 1 सेकंड का समय लगता है।
  • आर्यभट्ट जी ने सूर्य से ग्रहों की दूरी बताई, जो कि वर्तमान माप से मिलती-जुलती है। वहीं आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी करीब 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है, इसे एक 1 (AU) भी कहा जाता है।
  • पृथ्वी की परिधि की लंबाई की गणना- आर्यभट्ट जी ने पृथ्वी की लंबाई 39,968.05 किलोमीटर बताई थी, जो कि इसकी वास्तविक लंबाई (40,075.01 किलोमीटर) से महज 2 प्रतिशत ही कम है। वहीं आज के विज्ञान में इसे अभी भी आश्चर्यजनिक रुप से देखा जाता है।
  • इसके अलावा आर्यभट्ट जी ने वायुमंडल की ऊंचाई 80 किलोमीटर बताई। हालांकि, इसकी वास्तविक ऊंचाई 1600 किलोमीटर से भी ज्यादा है, लेकिन इसका करीब 99 फीसदी हिस्सा 80 किलोमीटर की सीमा तक ही सीमित है।
  • आर्यभट्ट जी ने एक साल की लंबाई 365.25868 दिन के बराबर बताई थी, जोकि वर्तमान गणना 365.25868 के काफी निकटतम है।
  • महान गणितज्ञ आर्यभट्ट जी की खगोलीय गणना ने ”जलाली कैलेंडर” बनाने में मद्द की थी।

आर्यभट्ट उपग्रह एवं आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान – Aryabhatta Satellite

आर्यभट्ट जी की मृत्यु – Aryabhatta Death

गणित और विज्ञान के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले आर्यभट्ट जी ने लगभग 550 ईसा पूर्व में अपने जीवन की अंतिम सांस ली थी।

आर्यभट्ट जी के बारे में रोचक तथ्य – Facts About Aryabhatta

  • आर्यभट्ट दुनिया के सबसे बुद्दिमान व्यक्तियों में शुमार है, जिन्होंने गणित और विज्ञान के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था,उन्होंने वर्तमान वैज्ञानिक दुनिया के लिए एक आश्चर्य प्रकट किया था। वहीं उनकी रचनाओं का इस्तेमाल ग्रीक और अरब देशों द्धारा और अधिक विकसित करने के लिए किया गया था।
  • आर्यभट्ट जी ने खगोलशास्त्र, गोलीय त्रिकोणमिति से संबंधित अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभाटिया’ को कविता के रुप में लिखा है। यह प्राचीन भारत की सबसे लोकप्रिय और पसंदीदा किताबों में से एक है। आपको बता दें कि उन्होंने अपनी इस प्रसिद्ध रचना में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 महत्वपूर्ण नियम बताए हैं।
  • महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने पाई का मान (3.1416) को दशमलव के चार अंकों तक ही सही बताया था।
  • महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट जी ने दशगीतिका हिस्से में पहले पांच ग्रहों की गणना एवं हिन्दू कालगणना और त्रिकोणमिति की चर्चा की है।
  • कालक्रिया में आर्यभट्ट जी ने हिन्दुकाल की गणना समेत ग्रहों की जानकारी दी थी।
  • गणितपाद में उन्होंने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित पर संपूर्ण जानकारी प्रदान की थी।
  • आज पूरी दुनिया में पढ़ी जाने वाली त्रिकोणमिति की खोज आर्यभट्ट ने की थी।
  • आर्यभट्ट दुनिया के एक ऐसे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण लगने की भी खोज की थी। इसके साथ-साथ ग्रहण लगने का समय निकलने का फॉर्मूला और ग्रहण कितनी देर तक रहेगा, इसके बारे में भी बताया था।
  • शून्य की खोज करने वाले महान गणितज्ञ आर्यभट्ट जी का मानना था कि सौर मंडल के केन्द्र में स्थित है, पृथ्वी समेत अन्य ग्र्ह इसके परिक्रमा करते हैं।

महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट जी ब्रम्हांड को अनादि-अनंत मानते थे। वहीं भारतीय दर्शन के मुताबिक इस सृष्टि का निर्माण वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों को मिलकर हुआ है, जबकि आर्यभट्ट जी आकाश को इन पंचतत्व में शामिल नहीं करते थे।


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