★ प्राचीन भारतीय गणित व उसका महत्व★
एक श्लोक प्राचीन काल से प्रचलित है।
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्।।
(याजुष ज्योतिषम)
अर्थात् जैसे मोरों में शिखा और नागों में मणि सबसे ऊपर रहती है, उसी प्रकार वेदांग और शास्त्रों में गणित सर्वोच्च स्थान पर स्थितहै।
सभी प्राचीन सभ्यताओं में गणित विद्या की पहली अभिव्यक्ति गणना प्रणाली के रूप में प्रगट होती है।
अति प्रारंभिक समाजों में संख्यायें रेखाओं के समूह द्वारा प्रदर्शित की जातीं थीं।
यद्यपि बाद में,विभिन्न संख्याओं को विशिष्ट संख्यात्मक नामों और चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया जाने लगा, उदाहरण स्वरूप भारत में ऐसा किया गया।
रोम जैसे स्थानों में उन्हें वर्णमाला के अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया गया।
यद्यपि आज हम अपनी दशमलव प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके हैं,किंतु सभी प्राचीन सभ्यताओं में संख्याएं दशमाधार प्रणाली (decimal system) पर आधारित नहीं थीं।
प्राचीन बेबीलोन में 60 पर आधारित संख्या-प्रणाली का प्रचलन था।
भारत में गणित के इतिहास को मुख्यता
5 कालखंडों में बांटा गया है-
1. आदि काल(500 इस्वी पूर्व तक)
(क) वैदिक काल (1000 इस्वी पूर्व तक) -शुन्य और दशमलव की खोज
(ख) उत्तर वैदिक काल (1000 से 500 इस्वी पूर्व तक) इस युग में गणित का भारत में अधिक विकास हुआ।
इसी युग में बोधायन शुल्व सूत्र की खोज हुई जिसे हम आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानते है।
2. पूर्व मध्य काल–sine,cosine की खोज हुई।
3. मध्य काल – ये भारतीय गणित का स्वर्ण काल है आर्यभट्ट, श्रीधराचार्य, महावीराचार्य
आदि श्रेष्ठ गणितज्ञ हुए।
4. उत्तर-मध्य काल(1200 इस्वी से 1800 इस्वी तक)-नीलकंठ ने 1500 में sin r का मान निकालने का सूत्र दिया जिसे हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते है।
5. वर्तमान काल - रामानुजम आदि महान गणितज्ञ हुए।
भारतीय गणित :
एक सूक्ष्मावलोकन★
गणित मूलतः भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुआ।
शून्य एवं अनन्त की परिकल्पना, अंकों की दशमलव प्रणाली, ऋणात्मक संख्याएं, अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के विकास के लिए संपूर्ण विश्व भारत का कृतज्ञ है।
वेद विश्व की पुरातन धरोहर है एवं भारतीय गणित उससे पूर्णतया प्रभावित है।
वेदांग ज्योतिष में गणित की महत्ता इस प्रकार व्यक्त की गई है :
जिस प्रकार मयूरों की शिखाएं और सर्पों की मणियां शरीर के उच्च स्थान मस्तिष्क पर विराजमान हैं, उसी प्रकार सभी वेदांगों एवं शास्त्रों में गणित का स्थान सर्वोपरि है।
सिंधु घाटी की सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर भागों में फैली थी।
इतिहासकार इसे ईसा पूर्व 3300-1300 का काल मानते हैं।
मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त अवशेषों एवं शिलालेखों से उस समय की प्रयुक्त गणित की जानकारी प्राप्त होती है।
उस समय की ईंटों एवं भिन्न-भिन्न भार के परिमाप के विविध आकारों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारतीयों को ज्यामिति की प्रारंभिक जानकारी थी।
लंबाई के परिमाप की विशिष्ट विधि थी जिससे ठीक-ठीक ऊंचाई ज्ञात हो सके।
ईंटों के निर्माण की विधि, शुद्धमाप के लिए भार के विविध आकार एवं लंबाई के विविध परिमापों से स्पष्ट है कि सिंधु घाटी की सभ्यता परिष्कृत एवं विकसित थी।
उस समय अंकगणित, ज्यामिति एवं प्रारंभिक अभियांत्रिकी का ज्ञान था।
वेद विश्व का सबसे पुराना ग्रंथ है।
बाल गंगाधर तिलक ने खगोलीय गणना के आधार पर इसका काल ईसा पूर्व 6000-4500 वर्ष निर्धारित किया है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में 10 पर आधारित विविध घातों की संख्याओं को अलग-अलग संज्ञा दी गई है, यथा
एक (10⁰ ),
दश (10¹)
शत(10² )
सहस्त्र (10³ ),
आयुत (10⁴ ),
लक्ष (10⁵ ),
प्रयुत (10⁶ ),
कोटि (10⁷ ),
अर्बुद (10⁸ ),
अब्ज (10⁹ ),
खर्ब (10¹⁰ ),
विखर्ब (10¹¹ ),
महापदम(10¹² ),
शंकु (10¹³ ),
जलधि(10¹⁴ ),
अन्त्य(10¹⁵ ),
मध्य(10¹⁶)और
परार्ध (10¹⁷)।
इन संख्याओं से स्पष्ट है कि वैदिक काल से ही अंकों की दशमलव प्रणाली प्रचलित है।
यजुर्वेद में गणितीय संक्रियाएं- योग, अंतर, गुणन, भाग तथा भिन्न आदि का समावेश है, उदाहरणार्थ यजुर्वेद की निम्न ऋचाओं पर ध्यान दें।
एका च मे तिस्त्रश्च मे तिस्त्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे नव च मे नव च मऽएकादश च में त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे पञचदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च मे एक विंशतिश्च मे त्रयास्त्रंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥ (18.24)
अर्थात् यज्ञ के फलस्वरूप हमारे निमित्त एक-संख्यक स्तोम (यज्ञ कराने वाले), तीन,
पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस,
इक्कीस, तेईस, पच्चीस, सत्ताइस, उनतीस,
इकतीस और तैंतीस संख्यकस्तोम सहायक होकर अभीष्ट प्राप्त कराएं।
इस श्लोक में विषम संख्याओं की समांतर श्रेणी प्रस्तुत की गई है-
(1,3,5,7,9,11,13,15,17,19,21,23,25,27,29,31,33)
यज्ञ का अर्थ संगतिकरण से है।
अंकों के अंकों की संगति से अंक विद्या बनती है।
श्लोक में प्रत्येक संख्या के साथ
‘च’ जुड़ा है जिसका अर्थ ‘और’ से है।
इसका अर्थ +1 जोड़ने से सम अथवा विषम राशियां बन जाती हैं।
इसी से पहाड़ा एवं वर्गमूल के सिद्धांतों का प्रतिपादन होता है।
इस अध्याय का अगला श्लोक (18.25) सम संख्याओं के समांतर श्रेणी प्रस्तुत करता है।
(4,8,12,16,20,24,28,32,36,40,44)
अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैदिक काल में-
(क) एक अंकीय संख्याएं 1, 2, 3, ..9;
(ख) शून्य और अनंत;
(ग) क्रमागत संख्याएं एवं भिन्नात्मक संख्याएं; तथा
(घ) गणितीय संक्रियाओं का उल्लेखनीय ज्ञान था।
धार्मिक अनुष्ठानों में वेदियों की रचना के लिए ज्यामिति का आविष्कार हुआ।
शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तरीय संहिता में ज्यामिति की संकल्पना प्रस्तुत है।
पर सामान्यतयाः ऐसा विचार है कि वेदांग ज्योतिष के शुल्वसूत्र से आधुनिक ज्यामिति की नींव पड़ी।
वेदांग ज्योतिष के अनुसार सूर्य की संक्रांति एवं विषुव की स्थितियां कृतिका नक्षत्र के वसंत विषुव के आस-पास हैं।
यह स्थिति ईसा पूर्व 1370 वर्ष के लगभग की है।
अतः वेदांग ज्योतिष की रचना संभवतः ईसा पूर्व वर्ष 1300 के आस-पास हुई होगी।
इस युग के महान गणितज्ञ लगध, बौधायन, मानव, आपस्तम्ब, कात्यायन रहे हैं।
इन सभी ने अलग-अलग सूल्व सूत्र की रचना की।
बोधायन का सूल्व सूत्र इस प्रकार है-
दीर्घस्याक्षणया रज्जुः पार्श्वमानी तिर्यकं मानी च।
यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयाङ्करोति॥
अर्थात् दीर्घ चतुरस (आयत) के विकर्ण (रज्जू) का क्षेत्र (वर्ग) का मान आधार (पार्श्वमानी) एवं त्रियंगमानी (लंब) के वर्गों का योग होता है।
सूल्व सूत्र आधुनिक काल में 'पाइथागोरस का सूत्र' के नाम से प्रचलित है।
पैथागोरस ने ईसा पूर्व 535 में मिस्र की यात्रा की थी।
संभव है कि पैथागोरस को मिस्र में सूल्व सूत्र की जानकारी प्राप्त हो चुकी हो।
बोधायन ने अपरिमेय राशि 20.5 का मान इस प्रकार दिया हैः
20.5=1 + 1/3 + 1/3.4-1/3.4.3.4
महर्षि लगध ने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की ऋचाओं से वेदांग ज्योतिष संग्रहीत किया।
वेदांग ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति, काल एवं गति की गणना के सूत्र दिए गए हैं।
तिथि मे का दशाम्य स्ताम्पर्वमांश समन्विताम्।
विभज्य भज समुहेन तिथि नक्षत्रमादिशेत॥
अर्थात् तिथि को 11 से गुणा कर उसमें पर्व के अंश जोड़ें और फिर नक्षत्र संख्या से भाग दें।
इस प्रकार तिथि के नक्षत्र बतावें।
नेपालमें इसी ग्रन्थके आधारमे विगत 6 सालसे "वैदिक तिथिपत्रम्" व्यवहार मे लाया गया है।
हमारे ऋषि,महर्षियों को बड़ी संख्याओं में अपार रुचि थी।
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गौतम बुद्ध की जीवनी पर आधारित ‘ललितविस्तार’ की रचना हुई।
उसमें गौतम बुद्ध के गणित कौशल की परीक्षा का प्रसंग आता है।
उनसे कोटि (107 ) से ऊपर संख्याओं के अलग-अलग नाम के बारे में पूछा गया।
युवा सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध का बचपन का नाम) ने कोटि के बाद 1053 की संख्याओं का अलग-अलग नाम दिया और फिर 1053 को आधार मान कर 10421 तक की संख्याओं को उनके
नामों से संबोधित किया।
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे।
उन्हीं के समकक्ष महावीर स्वामी का भी पदार्पण हुआ।
जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।
जैन महापुरुषों की गणित में भी रुचि थी।
उनकी प्रसिद्ध रचनाएं-
-‘सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र’, 'वैशाली गणित’, ‘स्थानांग सूत्र’, ‘अनुयोगद्वार सूत्र’ एवं ‘शतखण्डागम’ है।
भद्रवाहु एवं उमास्वति प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ थे।
वैदिक परंपरा में गुरु अपना ज्ञान मौखिक रूप से अपने योग्य शिष्य को प्रदान करता था पर ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी में ब्राह्मी लिपि का आविष्कार हुआ।
गणित की पुस्तकों की पांडुलिपियां ब्राह्मी लिपि में तैयार हुईं।
‘बख्शाली पाण्डुलिपि’ पहली पुस्तक थी जिसके कुछ अंश पेशावर के एक गांव वख्शाली में प्राप्त हुए।
ईसा पूर्व 3 शताब्दी की लिखी यह पुस्तक एक प्रमाणिक ग्रंथ है।
इसमें गणितीय संक्रियाओं-दशमलव प्रणाली, भिन्न, वर्ग, घन, ब्याज, क्रय एवं विक्रय आदि
विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई है।
आधुनिक गणित के त्रुटि स्थिति (False Position) विधि का भी यहां समावेश है।
ज्योतिष की एक अन्य पुस्तक ‘सूर्य सिद्धान्त’ की भी रचना संभवतः इसी दौरान हुई।
वैसे इसके लेखक के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
पर मयासुर को सूर्यदेव की आराधना के फलस्वरूप यह ज्ञान प्राप्त हुआ था।
निःसंदेह यह आर्यों की कृति नहीं है।
सूर्य सिद्धांत में बड़ी से बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने की विधि वर्णित है।
गिनती के अंकों को संख्यात्मक शब्दो में व्यक्त किया गया है, यथा
रूप (1),
नेत्र (2),
अग्नि(3),
युग (4),
इन्द्रिय (5),
रस (6),
अद्रि(7 - पर्वत शृंखला),
बसु (😎,
अंक(9),
रव (0)।
इन शब्दों के पर्यायवाची शब्द अथवा हिंदू देवी-देवताओं के नाम से भी व्यक्त किया गया है।
पंद्रह को तिथि से तथा सोलह को निशाकर से।
अंकों को दाएं से बाएं की तरफ रख कर बड़ी से बड़ी संख्या व्यक्त की गई है।
सूर्य सिद्धांत में विविध गणितीय संक्रियाओं का वर्णन है।
आधुनिक त्रिकोणमिति का आधार भी सूर्य सिद्धांत के तीसरे अध्याय में विद्यमान है।
ज्या, उत्क्रम ज्या एवं कोटि ज्या परिभाषित किया गया है।
यहां ध्यान देने योग्य बात है कि ज्या शब्द अरबी में जैब से बना, जिसका लैटिन रूपांतरण Sinus में किया गया और फिर यह वर्तमान 'Sine'
में परिवर्तित हुआ।
सूर्य सिद्धांत में π का मान 101/2 दिया गया है।
भारतीय इतिहास में गुप्त काल 'स्वर्ण युग' के रूप में माना जाता है।
महाराजा श्रीगुप्त द्वारा स्थापित गुप्त साम्राज्य पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था।
सन् 320-550 के मध्य इस साम्राज्य में ज्ञान की हर विद्या में महत्त्वपूर्ण आविष्कार हुए।
इस काल में आर्यभट(476)का आविर्भाव हुआ।
उनके जन्म स्थान का ठीक-ठीक पता नहीं है पर उनका कार्यक्षेत्र कुसुमपुर (वर्तमान पटना) रहा।
121 श्लोकों की उनकी रचना आर्यभटीय के चार खंड हैं--गितिका पद (13), गणितपद (33), कालकृपा पद (25) और गोल पद (50)।
प्रथम खंड में अंक विद्या का वर्णहै तथा द्वितीय एवं तृतीय खंड में बीजगणित, त्रिकोणमिति, ज्यामिति एवं ज्योतिष पर विस्तारपूर्वक वर्णन
किया गया है।
उन्होंने π का 4 अंकों तक शुद्ध मान ज्ञात किया- π = 3.4161।
संख्याओं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने देवनागरी वर्णमाला के पहले
25 अक्षर (क-म) तक 1-25,य-ह (30, 40, 50, ..100) और स्वर अ-औ तक 100,1002,1008 से प्रदर्शित किया।
उदाहरण के लिए :
जल घिनि झ सु भृ सृ ख
(8 + 50) (4 + 20) (9 + 70)(90 + 9) 2 = 299792458
यहां भी संख्याएं दाएं से बाएं की तरफ लिखी गई हैं।
आधुनिक बीज लेख (Cryptolgy) के लिए इससे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है।
आर्यभट की समृति में भारत सरकार
ने 19 अपै्रल 1975 को प्रथम भारतीय
उपग्रह आर्यभट को पृथ्वी की निम्न कक्षा
में स्थापित किया।
आर्यभट के कार्यों को भास्कराचार्य (600 ई) ने आगे बढ़ाया।
उन्होंने महाभास्करीय,आर्यभटीय
भाष्य एवं लघुभास्करीय की रचना की।
महाभास्करीय में कुट्टक (Indeterminate)
समीकरणों की विवेचना की गई है।
भास्कराचार्य की स्मृति में द्वितीय भारतीय उपग्रह का नाम ‘भास्कर’ रखा गया।
भास्कराचार्य के समकालीन भारतीय -hगणितज्ञ ब्रह्मगुप्त(598 ई) थे।
ब्रह्मगुप्त की प्रसिद्ध कृति ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त है।
इसमें 25 अध्याय हैं।
बीजगणित के समीकरणों के हल की विधि एवं द्विघातीय कुट्टक समीकरण,
X² = N.y² + 1 का हल इसमें दिया गया है।
जोशेफ लुईस लगरेंज (सन् 1736 -1813) ने कुट्टक समीकरण का हलपुनः ज्ञात किया।
भास्कराचार्य ने प्रिज्म एवं शंकु के आयतन ज्ञात करने की विधि बताई तथा गुणोत्तर श्रेणी के योग का सूत्र दिया।
‘‘किसी राशि को शून्य से विभाजितकरने पर अनंत प्राप्त होता है’’,कहने वाले वह प्रथम गणितज्ञ थे।
महावीराचार्य (सन् 850) ने संख्याओं के लघुतम मान ज्ञात करने की विधि प्रस्तुत की।
गणितसारसंग्रह उनकी कृति है।
श्रीधराचार्य (सन् 850) ने द्विघातीसमीकरणों के हल की विधि दी जो आज 'श्रीधराचार्य विधि' के नाम से ज्ञात है।
उनकी रचनाएं -‘नवशतिका’, ‘त्रिशतिका’,एवं ‘पाटीगणित’ हैं।
‘पाटीगणित’ का अरबी भाषा में अनुवाद ‘हिजाबुल ताराप्त’ शीर्षक से हुआ।
आर्यभट द्वितीय (सन् 920 -1000) ने महासिद्धान्त की रचना की जिसमें
अंकगणित एवं बीजगणित का उल्लेख है।
उन्होंने π का मान 22/7 निर्धारित किया।
श्रीपति मिश्र(सन् 1039)ने ‘सिद्धान्तशेषर’
एवं ‘गणिततिलक’ की रचना की जिसमें
क्रमचय एवं संचय के लिए नियम दिए गए हैं।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (सन् 1100) समुच्चय सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले प्रथम गणितज्ञ थे।
उन्होंने सार्वभौमिक समुच्चय एवं सभी
प्रकार के मानचित्रण (Mapping) एवं
सुव्यवस्थित सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।
गैलीलियो एवं जार्ज कैंटर ने इस विधि
का ‘एक से एक’ (वन-टू-वन)मानचित्रण
में उपयोग किया।
भास्कराचार्य द्वितीय (सन् 1114) ने ‘सिद्धान्तशिरोमणि’,‘लीलावती’,‘बीजगणित’
‘गोलाध्याय’, ‘ग्रहगणितम’ एवं ‘करणकौतुहल’
की रचना की।
बीजगणित के कुट्टक समीकरणों के हल
की चक्रवाल विधि दी।
यह विधि जर्मन गणितज्ञ हरमन हेंकेल
(सन् 1839-73) को बहुत पसंद आई।
हेंकल के अनुसार लगरेंज से भी पूर्व
संख्या सिद्धांत में चक्रवाल विधि एक
उल्लेखनीय खोज है।
पीयरे डी फरमेट (सन् 1601-1665)
ने भी कुट्टक समीकरणों के हल के लिए
चक्रवाल विधि का प्रयोग किया था।
भास्कराचार्य द्वितीय के पश्चात् गणित
में अभिरुचि केरल के नम्बुदरी ब्राह्मणों
ने प्रकट की।
‘आर्यभटीय’ की एक पांडुलिपि
मलयालम भाषा में केरल में प्राप्त हुई।
केरल के विद्वानों में नारायण पण्डित
(सन् 1356) का विशेष योगदान है।
उनकी रचना-‘गणितकौमुदी’ में क्रमचय
एवं संचय,संख्याओं का विभागीकरण
तथा ऐन्द्र जालिक (Magic) वर्ग की
विवेचना है।
नारायण पंडित के छात्र परमेश्वर
(सन् 1370 - 1460) ने मध्यमान
सिद्धांत (Mean Value theorem)
स्थापित किया तथा त्रिकोणमितीय
फलन ज्या का श्रेणी-हल दिया :
ज्या (x) = x - x3/3 +
परमेश्वर के छात्र नीलकण्ठ सोमयाजि
(सन् 1444-1544) ने 'तंत्रसंग्रह' की
रचना की।
उन्होंने व्युतक्रम स्पर्श ज्या का श्रेणी
हल प्रस्तुत किया :
tan\-1 (x) = x - x3/3 + x5/5
इसके साथ ही गणितीय विश्लेषण,
संख्या सिद्धांत,अनंत श्रेणी,सतत
भिन्न पर भी उनका अमूल्य योगदान है।
व्युतक्रम स्पर्श ज्या का उनका श्रेणी
हल वर्तमान में ग्रीगरीज श्रेणी के नाम
से प्रचलित है।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय
के प्राचार्य रहे सुधाकर द्विवेदी(सन् 1860
-1922) ने दीर्घवृतलक्षण,गोलीय रेखागणित,
समीकरण मीमांशा एवं चलन-कलन पर
मौलिक पुस्तकें लिखीं।
आधुनिक गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन्
(सन् 1887-1920)ने लगभग 50 गणितीय
सूत्रों का प्रतिपादन किया।
स्वामी भारती तीर्थ जी महाराज
(सन् 1884-1960) ने वैदिक गणित
के माध्यम से गुणा,भाग, वर्गमूल एवं
घनमूल की सरल विधि प्रस्तुत की।
हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष केंद्र
के वैज्ञानिक रीक वृग्स के अनुसार
पाणिनि की अष्टाध्यायी व्याकरण
कम्प्यूटर आधारित भाषा प्रोगामर
के लिए बहुत ही उपयुक्त है।
ईसा पूर्व 650 में लिखी इस पुस्तक
में 4000 बीजगणित जैसे सूत्र हैं।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है
कि विविध आयामों में भारतीय
गणित बहुत ही समृद्ध है।
कम्प्यूटर-भाषाओं के साथ-साथ
आधुनिक गणित प्राचीन भारतीय
गणित का ऋणी है।
#साभार_संकलित★
★★★★★★★★★★★
जयति पुण्य सनातन संस्कृति💐
जयति पुण्य भूमि भारत💐
जयतु जयतु हिंदुराष्ट्रं💐
सदा सर्वदा सुमङ्गल💐
हर हर महादेव💐
ॐ विष्णवे नम:💐
ॐ सूर्याय नमः💐
जय भवानी💐
जय श्रीराम💐*
Post a Comment
Post a Comment