मेरु प्रस्तार

गणित में, मेरुप्रस्तार या हलायुध त्रिकोण या पास्कल त्रिकोण (पास्कल ट्रायंगल) द्विपद गुणांकों को त्रिभुज के रूप में प्रस्तुत करने से बनता है। पश्चिमी जगत में इसका नाम फ्रांसीसी गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल के नाम पर रखा गया है। किन्तु पास्कल से पहले अनेक गणितज्ञों ने इसका अध्ययन किया है, उदाहरण के लिये भारत के पिंगलाचार्य और जैन ग्रंथों में[1], परसिया, चीन, जर्मनी आदि के गणितज्ञ।
मेरु प्रस्तार का सबसे पहला वर्णन पिंगल के छन्दशास्त्र में है। जनश्रुति के अनुसार पिंगल पाणिनि के अनुज थे। इनका काल ४०० ईपू से २०० ईपू॰ अनुमानित है। छन्दों के विभेद को वर्णित करने वाला 'मेरुप्रस्तार' (मेरु पर्वत की सीढ़ी) पास्कल (ब्लेज़ पास्कल १६२३-१६६२) के त्रिभुज से तुलनीय बनता है।

पिंगल भारत के प्राचीन गणितज्ञ और छन्दःसूत्रम् के रचयिता। इनका काल ४०० ईपू से २०० ईपू अनुमानित है। जनश्रुति के अनुसार यह पाणिनि के अनुज थे। छन्द:सूत्र में मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), द्विआधारी संख्या (binary numbers) और द्विपद प्रमेय (binomial theorem) मिलते हैं। पिंगल छंद के लेखक भी हैं।

गणित में द्विपद प्रमेय एक महत्वपूर्ण बीजगणितीय सूत्र है जो x + y प्रकार के द्विपद के किसी धन पूर्णांक घातांक का मान x एवं y के nवें घात के बहुपद के रूप में प्रदान करता है। अपने सामान्यीकृत (जनरलाइज्ड) रूप में द्विपद प्रमेय की गणना गणित के १०० महानतम प्रमेयों में होती है।


न्यूटन का द्विपद प्रमेयसंपादित करें

वस्तुतः द्विपद गुणांकों का मान पॉस्कल त्रिभुज के अवयवों के बराबर ही होता है।

अपने सरलतम रूप में द्विपद प्रमेय इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:


उदाहरण के लिये, 2 ≤ n ≤ 5 के लिये द्विपद प्रमेय का स्वरूप इस प्रकार है:


द्विपद प्रमेय का इतिहास अत्यंत मनोरंजक है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि द्विपद गुणांको को त्रिभुज के रूप में विन्यस्त करने का काम सबसे पहले पॉस्कल ने किया था। किन्तु तीसरी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ पिंगल ने द्विपद गुणांको का उपयोग छन्दःसूत्रम् में बड़ी सुन्दरता से किया है। उन्होने इसे मेरु प्रस्तार नाम दिया था।[1] १०वीं शताब्दी में हलायुध ने छन्दःसूत्र का भाष्य लिखा जिसमें उन्होने संयोजन समस्या (combinatorial problem) के हल के लिये वही विधि अपनायी है जिसे आजकल "पास्कल त्रिकोण" कहा जाता है।[2]

x के किसी n घातीय व्यंजक (इक्सप्रेशन) को शून्य के बराबर रखने पर प्राप्त समीकरण को n घात का बहुपद समीकरण (polynomial equation) कहते हैं।

 एक चर वाला सामान्य बहुपद समीकरण है।  एक त्रिघाती बहुपद समीकरण है। इसी तरह द्विघात समीकरण भी बहुपद समीकरण है।

एक से अधिक राशियों में भी बहुपद समीकरण हो सकते हैं। जैसे -

गणित के परम्परागत बीजगणित का एक बड़ा भाग समीकरण सिद्धान्त (Theory of equations) के रूप में अध्ययन किया/कराया जाता है। इसके अन्तर्गत बहुपद समीकरण के मूलों की प्रकृति का अध्ययन किया जाता है एवं इन मूलों को प्राप्त करने की विधियों एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं का विवेचन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, बहुपद, बीजीय समीकरण, मूल निकालना एवं मैट्रिक्स एवं सारणिक का प्रयोग करके समीकरणों का हल निकालना शामिल हैं।


।। ( a + b)ⁿ - मेरु-प्रस्तार /Pascal's Triangle ।।

हम अपने बच्चों को पश्चिमी सभ्यता की ओर आकर्षित होते देख रहे हैं परन्तु पश्चात् सभ्यता का आधार आपकी वैदिक संस्कृति तथा आपके प्राचीन ऋषि-मुनियों के ज्ञान ही हैं। आपको आपके प्रचीन धरोहर से दूर किया गया तथा आप ही के ज्ञान को भाषा तथा अन्दाज़ बदल कर आपके सम्मुख पड़ोसा गया।
( a + b), ( a + b)² , ( a + b)³, - - - -, ( a + b)ⁿ के मान को सुगमता से प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम ई. पू. दूसरी शती में विरचित पिंगल छन्द में छन्दों के विभेद को वर्णित करने वाला मेरु-प्रस्तार के वर्णन मिलता है।
तत्पश्चात " वराहमिहिर " द्वारा त्रि-लोश्टका प्रस्तार के नाम से उनकी रचना "बृहत संहिता - 22" जो कि सन् - 488 ई. से 587 ई. के मध्य रचि गइ में मिलता है।
पुनः श्रीधराचार्य ने पाटी-गणित में वर्णन किया है -
श्रीधराचार्य —
कटुतिक्तकषायाम्ललवणमधुरैः सखै रसैः षड्भिः ।
विदधाति सूपकारो व्यञ्जनमाचक्ष्व कति भेदम् ।।
(—पाटी गणित, उदाहरण, श्लोक - 95)
अर्थात -
हे मित्र, कटु, तिक्त, कषाय, अम्ल, लवण, तथा मधुर इन छः रसों को 1, 2, 3 आदि के मेल से रसोइया क्रमशः कितने प्रकार का व्यंजन बना सकता है, बताओ ?
भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य ने अपने ग्रन्थ सिद्धांत-सिरोमणी के लीलावती खण्ड में विवरण किया है -
भास्कराचार्य —
प्रस्तारे मित्र गायत्र्याः स्युः पादे व्यक्तयः कति ।
एकादिगुरवश्र्चाशु कति कत्युच्यतां पृथक।।
(-लीलावती, मिश्रक-व्यवहार, श्लोक उदा. - १)
अर्थात -
हे मित्र! गायत्री के प्रत्येक चरण में गुरु, लघु की अलग अलग संख्याओं को रखने पर कुल कितने विभेद होंगे। साथ ही उन स्थानों में गुरु की अलग अलग संख्याओं द्वारा अलग अलग कितने विभेद होंगे ?
यह उदाहरण पूर्वोक्त छः रसों वाले संचय के उदाहरण के समतुल्य है। अन्तर केवल यह है कि पूर्वोक्त में कटु, तिक्त आदि 6 रसों को 1,2,3 आदि स्थानों में रखते हुए ' भेद-संख्या' प्राप्त करना है। वहाँ रसों की संख्या नियत तथा स्थान-संख्या अनियत होने से रस n तथा स्थान r हैं।
मेरु-प्रस्तार / त्रि-लोश्टका प्रस्तार -
(a+b)° = 1 = 2° = 1
(a+b) ¹ = 1 1 = 2¹ = 2
(a+b) ² = 1 2 1 = 2² = 4
(a+b)³ = 1 3 3 1 = 2³ = 8
(a+b)⁴ = 1 4 6 4 1 = 2⁴ = 16
- - - - = - - - - - - - - - - - - - = - - -
- - - - = - - - - - - - - - - - = - - -
(a + b)ⁿ = - - - - - - = 2ⁿ
मेरु-प्रस्तार की कुछ गणितीय विशेषताएँ इस प्रकार है—

(१) इस प्रस्तार की प्रत्येक संख्या अपने से ठीक उपर वाली दाईं, बाईं संख्या का योग होती है।

(२) इस प्रस्तार से प्रकट है कि संचय के विभेदों का योग 2 का n वाँ घात बनता है। यदि इस 2 संख्या को द्विपद के रुप में व्यक्त किया जाए तो इसकी प्रत्येक घात का प्रसार (expansion) प्रस्तार के क्रम से प्राप्त होता है। जैसे —
( 1 + 1)² = 1² + 2 × 1 × 1 + 1² = 1 + 2 + 1
( 1 + 1)³ = 1³ + 3 × 1² × 1 + 3 × 1 × 1² + 1³
= 1 + 3 + 3 + 1 इत्यादि

(३) चर संख्या वाले द्विपद के किसी घात के गुणनफल में प्रस्तार की संख्याएँ उनका गुणक (coefficient) सिद्ध होती है। जैसे —
( a + b)⁴ = a⁴ + 4 a³ b + 6 a² b² + 4 a b ³ + b⁴
यहाँ गुणक, प्रस्तार के अनुसार - 1, 4, 6, 4, 1
स्पष्टतः यह मेरु-प्रस्तार द्विपद के घात के सूत्र ( Binomial Theorem) को प्राप्त करने में सहायक है।
(४) सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने 1 से क्रमिक संख्याओं के योग के वर्ग ( a + b + c + - - - + n)² के सूत्र के लिए C (n 2) के नियम का उपयोग किया।
( a + b + c + - - - + n)² =
2 × { n! / 2 × ( n - 2)! नियत से प्राप्त युग्मों के गुणनफल का योग + ( a² + b² + c² + - - - + n²)}
इस प्रकार —
( 1 + 2 + 3 + 4)² = 2 ( 1× 2 + 1 × 3 + 1 × 4 + 2×3 + 2 × 4 + 3 × 4) + 1² + 2² + 3² + 4²
यहाँ कोष्ठक के अन्तर्गत C (4,2) के लिए उक्त नियमानुसार (4×3) ÷ 2 = 6 युग्म प्राप्त किए गए हैं।
इस प्रकार —
= 2 × 35 × 30
= 100
" भास्कराचार्य (द्वितीय) "— ( 1114 ई. 1193 ई.) ने अपने प्रसिद्ध पुस्तक " सिद्धांत-सिरोमणि " में " मेरु-प्रस्तार " के नाम से वर्णित किया है।
गणितीय विवरण (Mathematical Explanation) :-
(a + b)ⁿ = C (n, 0) aⁿ b° + C ( n , 1) aⁿ-¹ b¹ + C (n , 2) aⁿ-² b² + - - - - + C (n, n) a°bⁿ
उदाहरण (Example) :-
प्रथम (first) :-
( 103)⁴ = ( 100 + 3)⁴
= 1 × (100)⁴ × 3° + 4 × ( 100)³ × 3 + 6 × ( 100)² × 3² + 4 × 100 × 3³ + 1 × 3⁴
              = 100000000 + 12000000 + 540000 + 10800 + 81
= 112550881 (उत्तर)
द्वितीय (second) :-
( 103)⁴ = ( 1 + 03)⁴
= 1 × 1⁴ × 3° / 4 × 1³ × 3 / 6 ×1² × 3² / 4 × 1 × 3³ / 1 × 3⁴
= 1 / 12 / 54 / 108 / 81
= 112550881 (उत्तर)
अभ्यास (Exercise)
(1)
द्विपद प्रमेय ( Binomial Theorem) के प्रयोग से हल करें —
(i) ( 96) ³ ( ii) (102)⁴ (iii) ( 101)ⁿ
(iv) ( 98)ⁿ (v) ( 10.1)ⁿ
जहाँ (where) n = 5, 6 है
(2)
द्विपद प्रमेय ( Binomial Theorem) के प्रयोग से हल करें —
(i) ( 2x + 3y)⁴ ( ii) ( 2x - 3y)ⁿ
( ii) ( 1 - 3x)⁴ ( iv) ( 1 + 2x - 3x²)ⁿ
जहाँ (Where) n = 5, 6 है
(3) ( a + b)⁴ - ( a - b)⁴ का मान निकालिए तथा ( 3ⁿ + 2ⁿ)⁴ - ( 3ⁿ - 2ⁿ)⁴ को हल किजिए।
जहाँ (where) n = ½
(4) C² (n, 0) + C² (n, 1) + C² (n, 2 ) + - - - + C² (n, n ) का मान ज्ञात किजिए। ( Find the value.)
(5) यदि ( 2 + a)ⁿ के प्रस्तार में सत्रहवां तथा अट्ठारहवां पद समान हो तो a का मान ज्ञात किजिए।
( Find a, if 17 th and 18 th terms of the expansions of ( 2 + a)ⁿ are equal.)
{ जहां ( when) n = 50}
- - - × - - -
आपको यह जानकर आश्चर्य तथा खेद होगा कि इसी सिद्धांत को यूरोपीय गणितज्ञ B. Pascal (1623 ई. से 1662 ई.) ने Pascal's Triangle के नाम से तथा सर आइजक न्यूटन ( 1642 ई. से 1727 ई.) ने अपनी पुस्तक Principles of Mathematica में प्रतिपादित करा लिया। 


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