संगमग्राम के माधव

संगमग्राम के माधव

संगमग्राम के माधव (1350 ई- 1425 ई) एक प्रसिद्ध केरल गणितज्ञ-खगोलज्ञ थे, ये भारत के केरल राज्य के कोचीन जिले के निकट स्थित इरन्नलक्कुता नामक नगर के निवासी थे। इन्हें केरलीय गणित सम्प्रदाय (केरल स्कूल ऑफ एस्ट्रोनॉमी एंड मैथेमैटिक्स) का संस्थापक माना जाता है। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अनेक अनंत श्रेणियों वाले निकटागमन का विकास किया था, जिसे "सीमा-परिवर्तन को अनन्त तक ले जाने में प्राचीन गणित की अनन्त पद्धति से आगे एक निर्णायक कदम" कहा जाता है।[1] उनकी खोज ने वे रास्ते खोल दिए, जिन्हें आज गणितीय विश्लेषण (मैथेमैटिकल एनालिसि) के नाम से जाना जाता है।[2] माधवन ने अनंत श्रेणियों, कलन (कैलकुलस), त्रिकोणमितिज्यामिति और बीजगणित के अध्ययन में अग्रणी योगदान किया। वे मध्य काल के महानतम गणितज्ञों-खगोलज्ञों में से एक थे।

माधव
जन्म१३५० ई.
मृत्यु१४२५ ई.
आवाससंगमग्राम (Irinjalakuda (?) in केरल)
राष्ट्रीयताभारतीय
नागरिकताkerela
व्यवसायगणितज्ञ,खगोल विज्ञानी
पदवीगोलाविद"(गोलाकार के विशेषज्ञ)
प्रसिद्धि कारणDiscovery of power series expansions of trigonometric sinecosine and arctangent functions
धार्मिक मान्यताहिन्दू

ईसाई मिशनरियाँ उस समय कोच्ची के प्राचीन पत्तन के आसपास काफी सक्रिय रहतीं थीं। इसलिए कुछ विद्वानों ने यह विचार भी दिया है कि माधव के कार्य केरल स्कूल के माध्यम से, ईसाई मिशनरियों और व्यापारियों द्वारा यूरोप तक भी प्रसारित हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप, इसका प्रभाव विश्लेषण और कलन में हुए बाद के यूरोपीय विकास क्रम पर भी पड़ा होगा।[3]

नामसंपादित करें

माधव का जन्म इन्नाराप्पिली या इन्निनावाल्ली माधवन नम्बूदिरी के रूप में हुआ था। उन्होंने लिखा था कि उनके घर का नाम एक विहार से सम्बंधित था, जहां "बाकुलम" नाम का एक पौधा लगाया था। अच्युत पिशारती के अनुसार, (जिन्होंने माधवन द्वारा लिखी वेण्वारोहम पर एक टिप्पणी लिखी थी) बाकुलम स्थानीय स्तर पर "इरान्नी" के नाम से जाना जाता था। डाक्टर के.वी. शर्म, जो माधवन से सम्बंधित कार्यों के अधिकारी हैं, उनका विचार है कि उनके घर का नाम इरिन्नाराप्पिली या इरिन्नरावल्ली है।

इरिन्नालाक्कुता किसी समय इरिन्नातिकुटल के नाम से जाना जाता था। 'संगमग्रामम' (वह ग्राम जहाँ एकत्र हुआ जाय) द्रविड़ शब्द 'इरिनातिकुतल' का संस्कृत में किया गया कामचलाऊ अनुवाद है, इस शब्द का अर्थ होता है 'इरु (दो) अनन्ति (बाज़ार) कुटल (एकता)' या दो बाज़ारों की एकता।

हिस्टोरियोग्राफ़ीसंपादित करें

हालांकि माधव से पूर्व भी केरल में कुछ गणित संबंधी कार्यों के प्रमाण हैं (जैसे, सद्रत्नमाला सी. 1300, खंडित परिणामों का एक समुच्चय[4]), उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि मध्ययुगीन केरल में माधव ने समृद्ध गणितीय परंपरा के विकास के लिए एक सृजनात्मक आवेग प्रदान किया।

हालांकि, माधव के अधिकांश मौलिक कार्य (मात्र कुछ को छोड़कर) खो चुके हैं। उनके उत्तरवर्ती गणितज्ञों के कार्यों में उनका उल्लेख किया गया है, विशेषतः नीलकंठ सोमायाजी के तंत्रसंग्रह (की. 1500) में अनेक sinθ और arctanθ वाली अनंत श्रेणियों के प्रसार के रूप में. सोलहवां सदी के लेख महाज्ञानयान प्रकार में माधव को π के अनेक श्रेणी व्युत्पादनों के स्रोत के रूप में किया गया है। ज्येष्ठदेव की युक्तिभाषा (सी. 1530[5]) जोकि मलयालम भाषा में लिखी गयी है, में यह श्रेणियां 1/(1+x 2), जहां x = tan θ आदि, जैसे बहुपदों के लिए टेलर श्रेणी के प्रसार के रूप में प्रमाणों के साथ प्रस्तुत की गयी हैं।

इस प्रकार, वास्तव में कौन से कार्य माधव द्वारा किये गए हैं, यह एक विवाद का विषय है। युक्ति-दीपिका (जिसे तंत्रसंग्रह व्याख्या भी कहते हैं), संभवतः ज्येष्ठदेव के शिष्य, संकर वरियार द्वारा रचित है, यह sin θ, cos θ और arctan θ के लिए श्रेणी प्रसार के अनेक प्रारूप प्रस्तुत करती है, साथ ही साथ त्रिज्या और वृत्तखंड की लम्बाई के कुछ गुणनफल भी, जिसके अधिकांश संस्करण युक्तिभाषा में भी दिखायी पड़ते हैं। उस श्रेणी, जिसके बारे में राजगोपाल और रंगाचारी ने तर्क दिया है, का व्यापक रूप से उद्धरण मूल संस्कृत भाषा से नहीं दिया जाता,[1] और चूंकि इनमे से कुछ श्रेणियों के लिए नीलकंठ ने माधव को श्रेय दिया है, इसलिए संभवतः कुछ अन्य प्रारूप भी माधव के कार्यों में से ही हो सकते हैं।

अन्य लोगों ने यह अनुमान लगाया है कि प्रारंभिक रचना कर्णपद्धति (सी. 1375-1475), या महाज्ञानयान प्रकार संभवतः माधव द्वारा लिखित हो सकते हैं, लेकिन इसकी सम्भावना बहुत कम है।[6]

कर्णपद्धति, के साथ ही केरल की और भी प्राचीन गणित रचना सदरत्नमाला और तंत्रसंग्रह तथा युक्तिभाषा पर, 1834 के चार्ल्स मैथ्यू व्हिश के एक लेख में विचार किया गया है, यह फ्लक्शन (अवकलन के लिए न्यूटन द्वारा दिया गया नाम) की खोज में न्यूटन पर प्राथमिकता हेतु उनका ध्यान आकर्षित करने वाला पहला लेख था।[4] बीसवीं शताब्दी के मध्य में, रूसी विद्वान जुश्केविच ने माधव की विरासततुल्य कार्य का पुनरावलोकन किया[7] और 1972 में सर्मा द्वारा केरल स्कूल का एक व्य्यापक निरीक्षण भी उपलब्ध करवाया गया।[5]

वंशावलीसंपादित करें

युक्तिभाषा में ज्या नियम (साइन रूल) का स्पष्टीकरण

कई ऐसे ज्ञात खगोलज्ञ हैं जो माधवन के काल से पहले आये थे, इसमें कुतालुर किज्हर भी थे (2ns शताब्दी. Ref: पुरानानुरु 229), वररुकी (चौथी शताब्दी), संकरानरायना (866 ई). हो सकता है कि अन्य अज्ञात व्यक्ति भी उनके पूर्वकाल में अस्तित्व में रहे हों. हालांकि, हमारे पास माधवन के बाद के काल का एक स्पष्ट लेखा है। परमेश्वर नम्बूदिरी उनके एक प्रत्यक्ष शिष्य थे। सूर्य सिद्धांत की एक मलयालम टिप्पणी की ताड़पत्र हस्तलिपि के अनुसार, नीलकंठ सोमयाजी परमेस्वर के पुत्र दामोदर (सी. 1400-1500) के शिष्य थे। ज्येष्ठदेव नीलकंठ के शिष्य थे। अच्युत पिशारती जो कि त्रिक्कान्तियुर के थे, उनका उल्लेख भी ज्येष्ठदेव के शिष्य के रूप में है और ग्राममरियन मेल्पथुर नारायणा भात्ताथिरी अच्युत के शिष्य थे।[5]

योगदानसंपादित करें

यदि हम गणित को बीजगणित की सीमित प्रक्रियाओं से अनंत की प्रक्रियाओं तक की एक श्रेणी के रूप में देखें तो इस परिवर्तन की ओर पहला कदम आदर्शतः अनंत श्रेणी के प्रसार के साथ शुरू होगा. यह अनंत श्रेणी की ओर वह परिवर्तन ही है, जिसके लिए माधव को श्रेय दिया जाता है। यूरोप में, ऐसी पहली श्रेणी का विकास 1667 में जेम्स ग्रेगोरी ने किया था। श्रेणी के सम्बन्ध में माधव का कार्य उल्लेखनीय है, लेकिन वह बात जो वास्तव में असाधारण है, वह उनके द्वारा किया गया त्रुटि पद (या संशोधन पद) का मूल्यांकन है।[8] इससे यह पता चलता है कि अनंत श्रेणी की सीमा संबंधी प्रकृति को उन्होंने बहुत भली प्रकार समझा था। अतः, माधव ने ही अनंत श्रेणी प्रसार के अन्तर्निहित विचारों, घात श्रेणी, त्रिकोणमीतीय श्रेणी और अनंत श्रेणी के परिमेय निकटागमन के विचारों का आविष्कार किया होगा.[9]

हालांकि, जैसा ऊपर कहा गया है, विशुद्ध रूप से माधव द्वारा दिए गए परिणाम और उनके परवर्तियों द्वारा दिए गए परिणामों का निर्धारण कर पाना कुछ कठिन है। नीचे उन परिणाम का सारांश दिया जा रहा है, जिनके लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा माधव को श्रेय दिया गया है।

अनंत श्रेणीसंपादित करें

उनके अनेक योगदानों के अंतर्गत, उन्होंने sine, cosine, tangent और arctangent त्रिकोणमीतीय फलनों के लिए अनंत श्रेणी की खोज की और एक वृत्त की परिधि की गणना के लिए भी कई तरीके निकाले. युक्तिभाषा पुस्तक से ज्ञात माधव की एक श्रेणी है, जो स्पर्शज्या के व्युत्क्रम की घात श्रेणी का प्रमाण और व्युपादन सम्मिलित करती है, इसकी खोज माधव द्वारा ही की गयी थी।[10] पुस्तक में ज्येष्ठदेव इस श्रेणी की व्याख्या इस प्रकार करते हैं।

The first term is the product of the given sine and radius of the desired arc divided by the cosine of the arc. The succeeding terms are obtained by a process of iteration when the first term is repeatedly multiplied by the square of the sine and divided by the square of the cosine. All the terms are then divided by the odd numbers 1, 3, 5, .... The arc is obtained by adding and subtracting respectively the terms of odd rank and those of even rank. It is laid down that the sine of the arc or that of its complement whichever is the smaller should be taken here as the given sine. Otherwise the terms obtained by this above iteration will not tend to the vanishing magnitude.[11]

इससे प्राप्त होगा =sincos(1/3)(sin)3(cos)3+(1/5)(sin)5(cos)5(1/7)(sin)7(cos)7+...{\displaystyle r\theta ={\frac {r\sin \theta }{\cos \theta }}-(1/3)\,r\,{\frac {\left(\sin \theta \right)^{3}}{\left(\cos \theta \right)^{3}}}+(1/5)\,r\,{\frac {\left(\sin \theta \right)^{5}}{\left(\cos \theta \right)^{5}}}-(1/7)\,r\,{\frac {\left(\sin \theta \right)^{7}}{\left(\cos \theta \right)^{7}}}+...}

जो बाद में ऐसा परिणाम देता है:

=tan(1/3)tan3+(1/5)tan5{\displaystyle \theta =\tan \theta -(1/3)\tan ^{3}\theta +(1/5)\tan ^{5}\theta -\ldots }

यह श्रेणी परंपरागत रूप से ग्रेगोरी (जेम्स ग्रेगोरी के नाम से, जिन्होंने इसकी खोज माधन से तीन शताब्दियों बाद की) श्रेणी के नाम से जानी जाती थी। यदि हम इस श्रेणी को ज्येष्ठदेव की खोज मानें तो भी यह ग्रेगोरी के काल से एक शताब्दी पहले की बात होगी और अवश्य ही इसी प्रकार की अन्य अनंत श्रेणियों की खोज माधव द्वारा की गयी है। आज, इसे माधव-ग्रेगोरी-लेबिनिज़ श्रेणी के नाम से जाना जाता है।[11][12]

त्रिकोणमितिसंपादित करें

माधव ने ज्याओं (sine) के लिए सबसे उपयुक्त सारिणी भी दी, जो दिए गए वृत्त के चतुर्थांश पर समान अंतराल पर खींची गयी अर्ध-ज्या जीवओं के मानों के रूप में परिभाषित थी। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने यह अत्यंत सटीक सारिणी निम्न श्रेणी प्रसारों के आधार पर प्राप्त की होगी[2]:

sin q = q - q3/3! + q5/5! - ...
cos q = 1 - q2/2! + q4/4! - ...

पाई (π) का मानसंपादित करें

निम्नलिखित श्लोक में माधव ने वृत्त की परिधि और उसके व्यास का सम्बन्ध (अर्थात पाई का मान) बताया है जो इस श्लोक में भूतसंख्या के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है-

विबुधनेत्रगजाहिहुताशनत्रिगुणवेदाभवारणबाहवः
नवनिखर्वमितेवृतिविस्तरे परिधिमानमिदं जगदुर्बुधः

इसका अर्थ है- 9 x 1011 व्यास वाले वृत्त की परिधि 2872433388233होगी।

33288
विबुध (देव)नेत्रगजअहि (नाग)
333
हुताशन (अग्नि)त्रिगुण
42782
वेदाभ (नक्षत्र)वारण (गज)बाहवै (भुजाएँ)

π के मान के सम्बन्ध में माधव के कार्य का उल्लेख हमें महाज्ञानयानप्रकार ("मेथड्स फॉर द ग्रेट साइंस") में मिला जहां कुछ विद्वान जैसे सर्मा[5], का यह मानना है कि हो सकता है यह पुस्तक स्वयं माधव ने ही लिखी हो, वहीं दूसरी ओर इसके 16वीं शताब्दी के परवर्तियों द्वारा लिखे जाने की सम्भावना अधिक है।[2] यह पुस्तक अनेक प्रसारों के लिए माधव को ही श्रेय देती है और π के लिए निम्न अनन्त श्रेणी प्रसार देती है, जिसे अब माधव-लेबिनिज़ श्रेणी के नाम से जाना जाता है:[13][14]

व्यासे वारिधिनिहते रूपहृते व्याससागराभिहते।
त्रिशरादिविषमसंख्यामत्तमृणं स्वं पृथक् क्रमात् कुर्यात् ॥
यत्संख्ययात्र हरणे कृते निवृत्ता हृतिस्तु जामितया।
तस्या उर्धगताया समसंख्या तद्दालं गुणोऽन्ते स्यात् ॥
4=113+1517++(1)2+1+{\displaystyle {\frac {\pi }{4}}=1-{\frac {1}{3}}+{\frac {1}{5}}-{\frac {1}{7}}+\cdots +{\frac {(-1)^{n}}{2n+1}}+\cdots }

जिसे उन्होंने चाप-स्पर्शज्या फलन के घात श्रेणी प्रसार से प्राप्त किया था। हालांकि, सबसे अधिक प्रभावित करने वाली बात यह है कि उन्होंने एक संशोधन पद, Rn भी दिया, जो n पदों तक गणना के बाद आने वाली त्रुटि के लिए था।

माधव ने Rn के तीन प्रारूप दिए थे जो निकटागमन को संशोधित करते थे[2], इसने नाम हैं

Rn = 1/(4n), or
Rn = n/ (4n2 + 1), or
Rn = (n2 + 1) / (4n3 + 5n).

जहां तीसरे संशोधन के फलस्वरूप π का अत्यंत परिशुद्ध परिकलन मिलता है।

इस प्रकार के संशोधन पद तक कैसे पहुंचे।[15] सबसे विश्वसनीय तथ्य यह है कि ये सतत भिन्न के प्रथम तीन अभिसारों के रूप में आते हैं जिसे स्वयं ही π के मानक निकट मान से व्युत्पन्न किया जा सकता है, यह 62832/20000 है (मूल पांचवें सी. परिकलन के लिए देखें, आर्यभट्ट).

उन्होंने π की मूल अनंत श्रेणी के रूपांतरण द्वारा अनंत श्रेणी प्राप्त करके, एक और भी शीघ्रतापूर्वक अभिसारित होने वाली श्रेणी दी थी

=12(1133+15321733+){\displaystyle \pi ={\sqrt {12}}\left(1-{1 \over 3\cdot 3}+{1 \over 5\cdot 3^{2}}-{1 \over 7\cdot 3^{3}}+\cdots \right)}

π के निकटतम मान के परिकलन के लिए पहले 21 पदों के प्रयोग द्वारा, उन्होंने एक ऐसा मान प्राप्त किया जो दशमलव के 11 स्थानों तक सही था (3.14159265359)[16]. 3.1415926535898 का मान दशमलव के 13 स्थानों तक सही, के लिए भी कभी-कभी माधव को श्रेय दिया जाता है।[17] लेकिन यह शायद यह उनके किसी शिष्य के द्वारा दिया गया है। यह पांचवी शताब्दी से π के सबसे परिशुद्ध निकटतम मानों में से था (देखें, हिस्ट्री ऑफ न्यूमेरिकल अप्रौक्सिमेशन ऑफ π).

पुस्तक सदरत्नमाला, जिसे आमतौर पर माधव के काल से पूर्व की पुस्तक माना जाता है, भी आश्चर्यजनक रूप से π का अत्यंत परिशुद्ध मान देती है, π = 3.14159265358979324 (दशमलव के 17 स्थानों तक सही). इस आधार पर, आर. गुप्ता ने यह तर्क दिया है कि हो सकता है यह पुस्तक भी माधव द्वारा ही लिखी गयी हो.[6][16]

बीजगणितसंपादित करें

माधव ने वृत्तखंड की लम्बाई की अन्य श्रेणियों और इससे सम्बंधित π की परिमेय भिन्न संख्याओं के निकटतम मान पर भी अनुसन्धान किया, उन्होंने बहुपद प्रसार के तरीके खोजे, अनंत श्रेणी के लिए अभिसारिता परीक्षण खोजा और अनंत सतत भिन्न संख्याओं का विश्लेषण किया।[6] उन्होंने पुनरावृत्ति द्वारा गूढ़ समीकरणों का भी हल निकला और सतत भिन्न संख्याओं के द्वारा गूढ़ संख्याओं का निकटतम मान भी प्राप्त किया।[6]

कलन (कैल्क्युलस)संपादित करें

माधव ने कलन के विकास की नींव रखी, जिसे उनके परवर्तियों ने केरला स्कूल ऑफ एस्ट्रोनौमी एंड मैथेमैटिक्स में आगे विकसित किया।[9][18] (यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि कलन के कुछ सिद्धांत प्राचीन गणितज्ञों को ज्ञात थे।) माधव ने भी प्राचीन कार्यों से प्राप्त कुछ परिणामों को आगे बढ़ाया, जिसमे भास्कर द्वितीय के कार्य भी सम्मिलित थे।

कलन में, उन्होंने अवकलन, समाकलन के प्रारंभिक प्रारूप का प्रयोग किया है और उन्होंने या उनके शिष्यों ने साधारण फलनो के समाकलन का विकास किया।

माधव की कृतियाँसंपादित करें

के.वी. शर्मा ने माधव को निम्नलिखित पुस्तकों का रचयिता बताया है[19][20]:

  1. गोलावाद
  2. मध्यमानयानप्रकर
  3. महाज्ञानयानप्रकर
  4. लग्नप्रकरण
  5. वेण्वारोह[21]
  6. स्फुटचन्द्राप्ति
  7. अगणित-ग्रहचार
  8. चन्द्रवाक्यानि

केरलीय गणित सम्प्रदायसंपादित करें

माधवन के बाद केरलीय गणित सम्प्रदाय कम से कम दो शताब्दियों तक फलता-फूलता रहा। ज्येष्ठदेव से हमें समाकलन का विचार मिला, जिसे 'संकलितम' कहा गया था, (हिंदी अर्थ : 'संग्रह'), जैसा कि इस कथन में है:

एकाद्येकोथर पद संकलितम समं पदवर्गठिन्ते पकुति,[12]

जो समाकलन को एक ऐसे चर (पद) के रूप में बदल देता है जो चर के वर्ग के आधे के बराबर होगा; अर्थात x dx का समाकलन x2 / 2 के बराबर होगा। यह स्पष्ट रूप से समाकलन की शुरुआत है। इससे सम्बंधित एक अन्य परिणाम कहता है कि किसी वक्र के अन्दर का क्षेत्रफल उसके समाकल के बराबर होता है। इसमें से अधिकांश परिणाम, यूरोप में ऐसे ही परिणामों के अस्तित्व में आने से कई शताब्दियों पूर्व के हैं। अनेक प्रकार से, ज्येष्ठदेव की युक्तिभाषा कलन पर विश्व की पहली पुस्तक मानी जा सकती है।[4][9][18]

प्रभावसंपादित करें

भारत एवं रोमन साम्राज्य के दक्षिणी-पश्चिमी भाग के बीच व्यापार मार्ग

माधव को "मध्य युग का महानतम गणितज्ञ-खगोलज्ञ"[6] कहा गया है, या "गणितीय विश्लेषण का संस्थापक; इस क्षेत्र में उनके कुछ अनुसंधान यह प्रकट करते हैं कि उनके अन्दर असाधारण अंतर्ज्ञान प्रतिभा थी।"[22]. ओ'कॉनोर और रॉबर्ट्सन के अनुसार माधव का उचित मूल्यांकन निम्न शब्दों में होगा उन्होंने आधुनिक क्लासिकल अनालिसिस की ओर निर्णायक कदम उठाया[2].

यूरोप में संभावित प्रसारसंपादित करें

मालाबार समुद्र तट पर यूरोपीय दिशा निर्देशकों से पहले संपर्क के दौरान, 15वीं-16वीं शताब्दी में केरल स्कूल काफी प्रसिद्ध था। उस समय, संगमग्राम के निकट स्थित कोच्ची का पत्तन समुद्रीय व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था और अनेकों जेसूट मिशनरियां और व्यापारी इस क्षेत्र में सक्रिय थे। केरल स्कूल की प्रसिद्धि को देखते हुए और इस काल के दौरान स्थानीय विद्वानों के बीच जेसूट समूह के कुछ लोगों द्वारा इसकी ओर दिखायी गयी रूचि के फलस्वरूप कुछ विद्वानों, जिसमे, यू. मैनचेस्टर के, जे. जोसेफ भी शामिल हैं, ने कहा[23] कि इस काल के दौरान केरल स्कूल से लेख यूरोप पहुंचे हैं, जो न्यूटन के समय से एक शताब्दी के पूर्व का समय था।[3] हालांकि इन लेखों का कोई भी यूरोपीय अनुवाद अस्तित्व में नहीं है, फिर भी यह संभव है कि इन विचारों ने विश्लेषण और कलन में बाद के यूरोपीय विकासों को प्रभावित किया हो. (अधिक विवरण के लिए देखें, केरल स्कूल). यह लेखक के विचारों को उचित ढंग से न समझ पाने के कारण हुआ। 16 वीं शताब्दी में जेसूट के लोग, जो माधवन और उनके शिष्यों की प्रतिष्ठा से परिचित थे, के लिए यह लगभग असंभव था कि वे संस्कृत और मलयालम का अध्ययन करके इसे यूरोपीय गणितज्ञों तक पहुंचाएं, इसके स्थान पर वे खुद ही इस खोज को करने का दावा करते हैं।

सन्दर्भसंपादित करें

  1. ↑ इस तक ऊपर जायें:  C T Rajagopal and M S Rangachari (1978). "On an untapped source of medieval Keralese Mathematics"Archive for History of Exact Sciences. 18 (2): 89–102. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  2. ↑ इस तक ऊपर जायें:     J J O'Connor and E F Robertson. "Mādhava of Sangamagrāma". School of Mathematics and Statistics University of St Andrews, Scotland. मूल से 14 मई 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 सितंबर 2007.
  3. ↑ इस तक ऊपर जायें:  D F Almeida, J K John and A Zadorozhnyy (2001). "Keralese mathematics: its possible transmission to Europe and the consequential educational implications". Journal of Natural Geometry20 (1): 77–104.
  4. ↑ इस तक ऊपर जायें:   Charles Whish (1834). "On the Hindu Quadrature of the circle and the infinite series of the proportion of the circumference to the diameter exhibited in the four Sastras, the Tantra Sahgraham, Yucti Bhasha, Carana Padhati and Sadratnamala". Transactions of the Royal Asiatic Society of Great Britain and IrelandRoyal Asiatic Society of Great Britain and Ireland3 (3): 509–523. डीओआइ:10.1017/S0950473700001221JSTOR 25581775.
  5. ↑ इस तक ऊपर जायें:    K. V. Sarma & S Hariharan (संपा॰). "A book on rationales in Indian Mathematics and Astronomy—An analytic appraisal" (PDF)Yuktibhāṣā of Jyeṣṭhadevaमूल (PDF) से 28 सितंबर 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 जुलाई 2006. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "sarma" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  6. ↑ इस तक ऊपर जायें:     इयान जी पियर्स (2002). संगमग्राम के माधव Archived 2003-04-30 at the Wayback Machineमेकट्यूटर हिस्ट्री ऑफ़ मेथेमेटिक्स आर्चीव . सेंट एंड्रयूज के विश्वविद्यालय.
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  8.  C T Rajagopal and M S Rangachari (1986). "On medieval Keralese mathematics,"Archive for History of Exact Sciences35: 91–99. डीओआइ:10.1007/BF00357622.[मृत कड़ियाँ]
  9. ↑ इस तक ऊपर जायें:   "Neither Newton nor Leibniz - The Pre-History of Calculus and Celestial Mechanics in Medieval Kerala"MAT 314. Canisius College. मूल से 6 अगस्त 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 जुलाई 2006.
  10.  "The Kerala School, European Mathematics and Navigation"Indian Mathemematics. D.P. Agrawal—Infinity Foundation. मूल से 12 जुलाई 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 जुलाई 2006.
  11. ↑ इस तक ऊपर जायें:  R C Gupta (1973). "The Madhava-Gregory series". Math. Education7: B67–B70.
  12. ↑ इस तक ऊपर जायें:  "Science and technology in free India" (PDF)Government of Kerala—Kerala Call, सितंबर 2004. Prof. C.G.Ramachandran Nair. मूल से 21 अगस्त 2006 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 9 जुलाई 2006.
  13.  George E. Andrews, Richard Askey, Ranjan Roy (1999). Special FunctionsCambridge University Press. पृ॰ 58आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0521789885.
  14.  Gupta, R. C. (1992). "On the remainder term in the Madhava-Leibniz's series". Ganita Bharati14 (1–4): 68–71.
  15.  टी. हयाशी, टी. कुसुबा और एम. यानो. 'द करेक्शन ऑफ़ द माधव सिरीज़ फॉर द सर्काम्फेरेंस ऑफ़ अ सर्कल', सेंटौरस 33 (पृष्ठ 149-174). 1990.
  16. ↑ इस तक ऊपर जायें:  R C Gupta (1975). "Madhava's and other medieval Indian values of pi". Math. Education. 9 (3): B45–B48.
  17.  द 13-डिजिट एक्यूरेट वैल्यू ऑफ़ π, 3.1415926535898, कैन बी रिच्ड यूजिंग द इनफिनिट सिरीज़ एक्पैन्शन ऑफ़ π/4 (द फर्स्ट सिक्वेंस) बाइ गोइंग अप टू n = 76
  18. ↑ इस तक ऊपर जायें:  "An overview of Indian mathematics"Indian Maths. School of Mathematics and Statistics University of St Andrews, Scotland. मूल से 3 जुलाई 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 जुलाई 2006.
  19.  Sarma, K.V. (1977). Contributions to the study of Kerala school of Hindu astronomy and mathematics. Hoshiarpur: V V R I.
  20.  David Edwin Pingree (1981). Census of the exact sciences in Sanskrit,. A. 4. Philadelphia: American Philosophical Society. पपृ॰ 414–415.
  21.  K Chandra Hari (2003). "Computation of the true moon by Madhva of Sangamagrama"Indian Journal of History of Science38 (3): 231–253. मूल से 2 नवंबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 Januaraay 2010. |accessdate= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  22.  G G Joseph (1991). The crest of the peacock. नामालूम प्राचल |address= की उपेक्षा की गयी (|location= सुझावित है) (मदद)
  23.  "Indians predated Newton 'discovery' by 250 years". press release, University of Manchester. 13 अगस्त 2007. मूल से 21 मार्च 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 5 सितंबर 2007.


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केरलीय गणित सम्प्रदाय के गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री माधवाचार्य ने चौदहवीं शताब्दी में विभिन्न कोणों के ज्या के मानों की एक सारणी निर्मित की थी। इस सारणी में चौबीस कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं। जिन कोणों के ज्या के मान दिए गये हैं वे हैं:

3.75°, 7.50°, 11.25°, ..., तथा 90.00° (अर्थात् 3.75°= 1/24 समकोण के पूर्णांक गुणक)।

यह सारणी एक संस्कृत श्लोक के रूप में है जिसमें संख्यात्मक मानों को कटपयादि पद्धति का उपयोग करके निरूपित किया गया है।

इससे सम्बन्धित माधव के मूल कार्य प्राप्त नहीं होते हैं किन्तु नीलकण्ठ सोमयाजि (1444–1544) के 'आर्यभटीयभाष्य' तथा शंकर वरियार (सन् 1500-1560) द्वारा रचित तन्त्रसंग्रह की 'युक्तिदीपिका/लघुवृत्ति' नामक टीका में भी हैं।[1]

माधव की सारणीसंपादित करें

निम्नांकित श्लोक में माधव की ज्या सारणी दिखायी गयी है। जो चन्द्रकान्त राजू द्वारा लिखित कल्चरल फाउण्डेशन्स ऑफ मैथमेटिक्स नामक पुस्तक से लिया गया है।[1]

श्रेष्ठं नाम वरिष्ठानां हिमाद्रिर्वेदभावनः।
तपनो भानुसूक्तज्ञो मध्यमं विद्धि दोहनं॥
धिगाज्यो नाशनं कष्टं छत्रभोगाशयाम्बिका।
म्रिगाहारो नरेशोऽयं वीरोरनजयोत्सुकः॥
मूलं विशुद्धं नालस्य गानेषु विरला नराः।
अशुद्धिगुप्ताचोरश्रीः शंकुकर्णो नगेश्वरः॥
तनुजो गर्भजो मित्रं श्रीमानत्र सुखी सखे!।
शशी रात्रौ हिमाहारो वेगल्पः पथि सिन्धुरः॥
छायालयो गजो नीलो निर्मलो नास्ति सत्कुले।
रात्रौ दर्पणमभ्रांगं नागस्तुंगनखो बली॥
धीरो युवा कथालोलः पूज्यो नारीजरैर्भगः।
कन्यागारे नागवल्ली देवो विश्वस्थली भृगुः॥
तत्परादिकलान्तास्तु महाज्या माधवोदिताः।
स्वस्वपूर्वविशुद्धे तु शिष्टास्तत्खण्डमौर्विकाः॥ २.९.५

माधव द्वारा दिए गये ज्या मानसंपादित करें

माधव द्वारा दिए गए मानों की व्याख्या करने वाला चित्र

माधव द्वारा दिए गए मानों को समझने के लिए माना कोई कोण A है। O केन्द्र वाले तथा इकाई त्रिज्या के एक वृत्त की कल्पना कीजिए। माना वृत्त का चाप PQ केन्द्र O पर A कोण बनाता है। Q से OP पर QR लम्ब खींचिए। रेखाखण्ड RQ का मान ही Sin A का मान होगा।

उदाहरण के लिए माना A का मान 22.50° है। sin 22.50° का आधुनिक मान 0.382683432363 है तथा,

0.382683432363 radians = 180 / π × 0.382683432363 degrees = 21.926145564094 degrees.

तथा

21.926145564094 डिग्री = 1315 आर्कमिनट 34 आर्कसेकेण्ड 07 का सांठवाँ आर्कसेकेण्ड.

कटपयादि पद्धति में अंकों को उलटे क्रम में लिखा गया है। और 22.50° के संगत जो मान दिया गया है वह है : 70435131.

माधव की सारणी से कोणों के ज्या निकालनासंपादित करें

किसी कोण A के लिए, माना

= arcminutes,  arcseconds,  sixtieths of an arcsecond{\displaystyle \angle POS=m{\text{ arcminutes, }}s{\text{ arcseconds, }}t{\text{ sixtieths of an arcsecond}}}

तो

sin()==length of arc = in radians=180×60(+60+60×60).{\displaystyle {\begin{aligned}\sin(A)&=RQ\\&={\text{length of arc }}PS\\&=\angle POS{\text{ in radians}}\\&={\frac {\pi }{180\times 60}}\left(m+{\frac {s}{60}}+{\frac {t}{60\times 60}}\right).\end{aligned}}}

सारणी की प्रत्येक पंक्ति आठ अंक देती है। माना कोण A के संगत अंक (बाएँ से दाहिने की तरफ पढ़िए) इस प्रकार हैं-

12345678{\displaystyle d_{1}\quad d_{2}\quad d_{3}\quad d_{4}\quad d_{5}\quad d_{6}\quad d_{7}\quad d_{8}}

तो कटपयादि प्रणाली के अनुसार

=8×1000+7×100+6×10+5=4×10+3=2×10+1{\displaystyle {\begin{aligned}m&=d_{8}\times 1000+d_{7}\times 100+d_{6}\times 10+d_{5}\\s&=d_{4}\times 10+d_{3}\\t&=d_{2}\times 10+d_{1}\end{aligned}}}

माधवाचार्य के ज्या मानों की शुद्धता की तुलनासंपादित करें

निम्नलिखित सारणी में माधवाचार्य के ज्या मानों की शुद्धता की तुलना संगत आधुनिक मानों के साथ की गई है।

कोण A
(डिग्री में)
sin A के लिए माधवाचार्य द्वारा प्रदत्त मानमाधवाचार्य की सारणी
से प्राप्त sin A
का मान
sin A का
आधुनिक मान
देवनागरी लिपि में
कटपयादि प्रणाली
का उपयोग करते हुए
ISO 15919 लिप्यन्तरण
योजना में
संख्यात्मक मान
(1)(2)(3)(4)(5)(6)
03.75श्रेष्ठो नाम वरिष्ठानांśreṣṭhō nāma variṣṭhānāṁ22 05 42200.065403140.06540313
07.50हिमाद्रिर्वेदभावनःhimādrirvēdabhāvanaḥ85 24 84400.130526230.13052619
11.25तपनो भानु सूक्तज्ञोtapanō bhānu sūktajñō61 04 07600.195090320.19509032
15.00मध्यमं विद्धि दोहनंmaddhyamaṁ viddhi dōhanaṁ51 54 98800.258819000.25881905
18.75धिगाज्यो नाशनं कष्टंdhigājyō nāśanaṁ kaṣṭaṁ93 10 50110.321439470.32143947
22.50छन्नभोगाशयांबिकाchannabhōgāśayāṁbikā70 43 51310.382683400.38268343
26.25मृगाहारो नरेशोयंmr̥gāhārō narēśōyaṁ53 82 02510.442288650.44228869
30.00वीरो रणजयोत्सुकःvīrō raṇajayōtsukaḥ42 25 81710.499999980.50000000
33.75मूलं विशुद्धं नाळस्यmūlaṁ viśuddhaṁ nāḷasya53 45 90910.555570220.55557023
37.50गानेषु विरळा नराःgāneṣu viraḷā narāḥ30 64 29020.608761390.60876143
41.25अशुद्धिगुप्ता चोरश्रीःaśuddhiguptā cōraśrīḥ05 93 66220.659345800.65934582
45.00शम्कुकर्णो नगेश्वरःśaṃkukarṇō nageśvaraḥ51 15 03420.707106810.70710678
48.75तनूजो गर्भजो मित्रंtanūjō garbhajō mitraṃ60 83 48520.751839850.75183981
52.50श्रीमानत्र सुखी सखेśrīmānatra sukhī sakhē25 02 72720.793353310.79335334
56.25शशी रात्रौ हिमाहारौśaśī rātrou himāhārou55 22 85820.831469600.83146961
60.00वेगज्ञः पथि सिन्धुरःvēgajñaḥ pathi sindhuraḥ43 01 77920.866025430.86602540
63.25छाया लयो गजो नीलोchāya layō gajō nīlō71 31 38030.896872750.89687274
67.50निर्मलो नास्ति सल्कुलेnirmalō nāsti salkulē05 30 67130.923879540.92387953
71.25रात्रौ दर्पणमभ्रांगंrātrou darpaṇamabhrāṁgaṁ22 81 55230.946930160.94693013
75.00नागस्तुंग नखो बलीnāgastuṁga nakhō balī03 63 02330.965925810.96592583
78.75धीरो युवा कथालोलःdhīrō yuvā kathālōlaḥ92 14 17330.980785270.98078528
82.50पूज्यो नारीजनैर्भगाःpūjyō nārījanairbhagāḥ11 02 80430.991444870.99144486
86.25कन्यागारे नागवल्लीkanyāgārē nāgavallī11 32 03430.997858950.99785892
90.00देवो विश्वस्थली भृगुःdevō viśvasthalī bhr̥ guḥ84 44 73430.999999971.00000000

सन्दर्भसंपादित करें

  1. ↑ इस तक ऊपर जायें:  C.K. Raju (2007). Cultural foundations of mathematics: The nature of mathematical proof and the transmission of calculus from India to Europe in the 16 thc. CE. History of Philosophy, Science and Culture in Indian Civilization. X Part 4. Delhi: Centre for Studies in Civilizations. पपृ॰ 114–123. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "Raju" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है

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